
GEL Church Jambahal Parish: a hub of faith and struggle in the heartland of Odisha
ओडिशा की हृदयभूमि में आस्था और संघर्ष का केंद्र: जी.ई.एल. चर्च, जांबाहाल पल्ली—जहां विश्वास ने स्वाभिमान को जन्म दिया
परिचय: सुंदरगढ़ में आस्था और परिवर्तन का केंद्र
ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले में स्थित जी.ई.एल. चर्च जांबाहाल पल्ली (Gossner Evangelical Lutheran Church, Jambahal Parish) सिर्फ एक पूजा स्थल नहीं है; यह छोटानागपुर पठार की जनजातीय संस्कृति और इतिहास में गहरी जड़ें जमाए हुए, आस्था और सामाजिक न्याय के लिए निरंतर संघर्ष का एक जीवित स्मारक है। चिंगरडांड ए जांबाहाल, सुंदरगढ़ में स्थित यह पल्ली 1, गोस्नर इवेंजेलिकल लूथरन चर्च (GELC) की विशाल विरासत का एक अनिवार्य अंग है। यह विरासत 19वीं शताब्दी के मध्य से ही आदिवासियों को आध्यात्मिक मार्गदर्शन, शिक्षा और संगठित प्रतिरोध की प्रेरणा देती रही है ।
जांबाहाल की महत्ता को समझने के लिए, सुंदरगढ़ की मसीही पहचान को जानना आवश्यक है। सुंदरगढ़ जिला ओडिशा के उन क्षेत्रों में से एक है जहां मसीही समुदाय की उपस्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, जिले की कुल आबादी 2,093,437 थी, जिसमें ईसाई समुदाय की हिस्सेदारी 18.39% थी । यह प्रतिशत ओडिशा राज्य के भीतर मसीही उपस्थिति के सबसे मजबूत केंद्रों में से एक को चिह्नित करता है।
प्रशासनिक रूप से, जांबाहाल पल्ली जी.ई.एल. चर्च के दक्षिण पश्चिम डायोसिस (South West Diocese) के अंतर्गत आता है । यह प्रशासनिक संरचना 1995 में GELC के बड़े विभाजन का परिणाम थी, जिसके तहत चर्च को रांची मुख्यालय से अलग करके पांच डायोसिस—उत्तर पूर्व, उत्तर पश्चिम, दक्षिण पूर्व, सेंट्रल डायोसिस और दक्षिण पश्चिम डायोसिस—में बाँटा गया था । जांबाहाल को दक्षिण पश्चिम डायोसिस में शामिल करना, जिसका भौगोलिक विस्तार ओडिशा और राजगांगपुर क्षेत्रों तक है, इस बात को सुनिश्चित करता है कि स्थानीय सामुदायिक आवश्यकताओं और संस्कृति को प्राथमिकता मिले। इस प्रशासनिक स्वायत्तता की आवश्यकता ही यह दर्शाती है कि ओडिशा के इस क्षेत्र में लूथरन समुदाय कितना व्यापक और भौगोलिक रूप से फैला हुआ था। जांबाहाल पल्ली का अस्तित्व और इसकी सक्रियता सुंदरगढ़ क्षेत्र की मसीही जनसंख्या के घनत्व और उसके ऐतिहासिक महत्व को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती है।
जांबाहाल जैसे केंद्रों की ऐतिहासिक भूमिका को समझने के लिए, सुंदरगढ़ जिले की धार्मिक जनसांख्यिकी को संक्षिप्त रूप से देखना महत्वपूर्ण है, जो यहाँ की सामुदायिक विविधता और मसीही समुदाय के मजबूत आधार को दर्शाती है।
सुंदरगढ़ जिले की धार्मिक जनसांख्यिकी (2011)
| धर्म (Religion) | प्रतिशत (Percentage) | संदर्भ (Significance) |
| हिंदू (Hindu) | 73.20 % | जिले में बहुसंख्यक समुदाय। |
| ईसाई (Christian) | 18.39 % | ओडिशा में सबसे अधिक मसीही आबादी वाले जिलों में से एक। |
| अन्य (मुख्यतः सरना धर्म/ओआरपी) | 4.30 % | आदिवासी पहचान का महत्वपूर्ण हिस्सा 6। |
| कुल आबादी (Total Population) | 2,093,437 | मसीही समुदाय का मजबूत आधार। |
गोस्नर मिशन की ऐतिहासिक यात्रा: जर्मनी से जांबाहाल तक
जांबाहाल पल्ली की कहानी जर्मनी से शुरू होती है, जहाँ से गोस्नर इवेंजेलिकल लूथरन चर्च की नींव रखी गई थी।
गोस्नर मिशन का बीजारोपण (1845)
गोस्नर मिशन की उत्पत्ति 19वीं सदी के जर्मन पादरी जोहान्स इवेंजेलिस्टा गोस्नर (Johannes Evangelista Gossner, 1773–1858) के समग्र दृष्टिकोण में निहित है । जॉन गोस्नर की मिशनरी सोच कई मायनों में अनूठी थी; यह उनके मजबूत चरित्र, दृढ़ इच्छाशक्ति, गहरी भक्ति और ईश्वर में अटूट विश्वास को दर्शाती थी । गोस्नर का दर्शन केवल आध्यात्मिक संदेश देने तक सीमित नहीं था; यह एक समग्र मिशन था। उनका मानना था कि मिशन का कार्य प्रचार करना, व्यावहारिक सहायता प्रदान करना और गरीबी तथा हाशिए पर जी रहे लोगों के अधिकारों के लिए सक्रिय रूप से लड़ना है ।
इसी दर्शन से प्रेरित होकर, गोस्नर ने 1845 में चार मिशनरियों—रेव. एमिल शैट्ज़, रेव. अगस्त ब्रांट, रेव. फ्रेडरिक बाश, और रेव. थियोडोर यान्की—को भारत भेजा । मिशनरियों ने 1844 में जर्मनी से प्रस्थान किया और 1845 में कोलकाता (कलकत्ता) पहुँचे । उनका प्रारंभिक लक्ष्य म्यांमार के मेरगुई या हिमालय के तलहटी क्षेत्रों में करेन लोगों के बीच प्रचार करना था। हालांकि, कोलकाता में छोटानागपुर क्षेत्र के कुछ लोगों से मिलने के बाद, उन्होंने अपनी योजना बदल दी और रांची (जो उस समय ब्रिटिश भारत के छोटानागपुर प्रांत की राजधानी थी) को अपना केंद्र बनाने का निर्णय लिया 8।
छोटानागपुर से ओडिशा में विस्तार और सामुदायिक आंदोलन
रांची में मुख्यालय स्थापित होने के बाद, गोस्नर मिशन का कार्य मुख्य रूप से कोल (Kols), मुंडा, और उराँव जैसे आदिवासी समुदायों के बीच शुरू हुआ । मिशन ने तेजी से प्रगति की, और 25 जून 1846 को पहला बपतिस्मा आयोजित किया गया । धीरे-धीरे, इन समुदायों के बीच एक बड़ा सामूहिक आंदोलन (mass movement) शुरू हुआ ।
गोस्नर इवेंजेलिकल लूथरन चर्च (GELC) का विस्तार छोटानागपुर क्षेत्र तक सीमित नहीं रहा। जैसे-जैसे मिशन बड़ा होता गया, इसने उन आदिवासियों का भी अनुसरण किया जो बेहतर आजीविका की तलाश में काम करने के लिए दूर-दराज के क्षेत्रों, जैसे असम या पड़ोसी क्षेत्रों (ओडिशा के गंगापुर/सुंदरगढ़ रियासत) में प्रवास कर गए थे ।
यह समझना महत्वपूर्ण है कि जांबाहाल जैसी लूथरन पल्लियाँ, जो सुंदरगढ़ में स्थित हैं, झारखंड के रांची मुख्यालय से केवल धार्मिक रूप से नहीं, बल्कि जनजातीय प्रवास मार्गों के माध्यम से गहराई से जुड़ी हुई हैं। मिशन ने उन कोलों का समर्थन किया जो दूर चले गए थे, जिससे यह प्रमाणित होता है कि चर्च समुदाय की कठिनाइयों और भौगोलिक विस्थापन के साथ कदम से कदम मिलाकर चलता था। जांबाहाल पल्ली का विकास इसी क्षेत्रीय प्रवास और लगातार सामुदायिक समर्थन की आवश्यकता का प्रत्यक्ष परिणाम था।
आज, GELC भारत में सबसे बड़े लूथरन चर्चों में से एक बन गया है, जिसके सदस्यों की संख्या 5 लाख से अधिक है 4। एक महत्वपूर्ण आँकड़ा यह है कि इसके 90% से अधिक सदस्य आदिवासी हैं, जो आज भी भारत में हाशिए पर हैं 5। यह आंकड़ा चर्च की पहचान को स्पष्ट करता है, जो मुख्य रूप से आदिवासी उत्थान और उनके सशक्तिकरण पर केंद्रित है।
जांबाहाल की माटी और आदिवासी प्रतिरोध की गाथा
जांबाहाल पल्ली की ऐतिहासिक प्रासंगिकता सिर्फ उसके धार्मिक विस्तार में नहीं है, बल्कि उसके आसपास की मिट्टी में निहित आदिवासी प्रतिरोध की गाथाओं में भी है। यह क्षेत्र 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में गंगापुर रियासत (वर्तमान सुंदरगढ़) में हुए ऐतिहासिक आदिवासी भूमि आंदोलनों के केंद्र में था।
जांबाहाल: आदिवासी क्रांति का केंद्र
1930 के दशक के उत्तरार्ध में, आदिवासी किसानों ने ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन और रियासत की रानी द्वारा लगाए गए अत्यधिक करों तथा पारंपरिक खुंटकट्टी अधिकारों (सामुदायिक भूमि अधिकार) के उल्लंघन के खिलाफ संगठित होना शुरू कर दिया था । इस आंदोलन के प्रमुख नेता निर्मल मुंडा थे, जो प्रथम विश्व युद्ध के अनुभवी थे । निर्मल मुंडा ने भूमि अधिकारों की बहाली और करों को माफ करने की मांग करते हुए एक व्यापक ‘नो-रेंट’ अभियान शुरू किया।
इस आंदोलन में जांबाहाल क्षेत्र का नेतृत्व अत्यंत महत्वपूर्ण था। अंदाली जांबाहाल गाँव के बहादुर भगत 11 इस आंदोलन के प्रमुख आयोजकों में से एक थे। उन्होंने निर्मल मुंडा के साथ मिलकर 1938 में पूरे गंगापुर में मुंडा और उराँव आदिवासियों को संगठित किया ताकि वे करों का भुगतान करने से इनकार कर सकें ।
अमको-सिमको हत्याकांड (1939) से संबंध
संघर्ष का चरमोत्कर्ष 25 अप्रैल 1939 को अमको-सिमको हत्याकांड (Amko Simko Massacre) के रूप में सामने आया । निर्मल मुंडा को देशद्रोही बैठकें आयोजित करने के आरोप में गिरफ्तार करने के उद्देश्य से, लेफ्टिनेंट ई. डब्ल्यू. मार्गर के नेतृत्व में ब्रिटिश भारतीय सेना के सैनिकों ने सिमको गाँव के अमको-सिमको मैदान में एकत्रित आदिवासी किसानों की भीड़ पर गोली चला दी । इस नरसंहार में 49 लोगों की मृत्यु हुई और 86 घायल हुए । निर्मल मुंडा और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया, जिससे गंगापुर में मुंडा आंदोलन समाप्त हुआ ।
जांबाहाल पल्ली का महत्व इस बात से और भी बढ़ जाता है कि निर्मल मुंडा ने औपचारिक शिक्षा एक मिशनरी स्कूल में प्राप्त की थी । यह तथ्य एक गहरा संबंध स्थापित करता है। मिशनरी संस्थाएं, जांबाहाल पल्ली सहित, सिर्फ धार्मिक स्थल नहीं थीं; उन्होंने साक्षरता प्रदान की और आदिवासी नेताओं के भीतर ज्ञान, आत्म-सम्मान और नैतिक साहस का आधार तैयार किया, जिसने उन्हें अन्याय के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा दी।
गोस्नर मिशन की स्थापना का मूल सिद्धांत ही ‘गरीबों के अधिकारों के लिए लड़ना’ था । जब निर्मल मुंडा और बहादुर भगत जैसे शिक्षित आदिवासी नेताओं ने करों और भूमिहीनता के खिलाफ संघर्ष किया, तो वे अनजाने में, या जानबूझकर, मिशन के सामाजिक न्याय के दर्शन को क्रियान्वित कर रहे थे। जांबाहाल पल्ली, बहादुर भगत के गांव के निकट होने के कारण, इस आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण वैचारिक समर्थन केंद्र (Ideological Hub) रहा होगा। इस प्रकार, GELC की जड़ें राजनीतिक निष्क्रियता में नहीं, बल्कि सक्रिय सामाजिक उत्थान और प्रतिरोध में हैं, जो जांबाहाल पल्ली के गौरवशाली इतिहास का अभिन्न अंग है।
जांबाहाल और ऐतिहासिक आदिवासी प्रतिरोध
जांबाहाल पल्ली का इतिहास इस क्षेत्र के आदिवासी प्रतिरोध के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है:
| वर्ष | घटना | जांबाहाल से संबंध | संदर्भ |
| 1938 | निर्मल मुंडा द्वारा ‘नो-रेंट’ अभियान का तीव्र होना। | अंदाली जांबाहाल के बहादुर भगत प्रमुख आयोजक थे। | स्रोत |
| 1939 | अमको-सिमको हत्याकांड (25 अप्रैल)। | निर्मल मुंडा और बहादुर भगत को गिरफ्तार किया गया। आंदोलन के नेतृत्व को मिशनरी शिक्षा ने प्रेरित किया। | स्रोत |
पल्ली जीवन, वास्तुकला और सामुदायिक उत्सव
जांबाहाल पल्ली केवल अतीत के संघर्षों की कहानी नहीं कहता, बल्कि यह वर्तमान में जीवंत सामुदायिक जीवन और सांस्कृतिक समावेशन का केंद्र है।
चर्च का स्थापत्य और सौंदर्य
जी.ई.एल. चर्च जांबाहाल (चिंगरडांड ए जांबाहाल) की इमारत, हालांकि उसकी विशिष्ट वास्तुकला का विस्तृत विवरण सार्वजनिक रूप से कम उपलब्ध है , यह निश्चित रूप से छोटानागपुर क्षेत्र में गोस्नर मिशन की व्यापक स्थापत्य शैली को दर्शाती होगी। GELC का मुख्यालय, रांची का चर्च, अपनी रोमन वास्तुकला और पोस्ट-पुनर्जागरण यूरोपीय प्रोटेस्टेंट चर्चों की शैली के लिए जाना जाता है, जिसमें सुंदर टावर और राजसी प्रवेश द्वार होते हैं ।
लूथरन धर्मशास्त्र, जो मार्टिन लूथर के सिद्धांतों से प्रेरित है, वास्तुकला में कार्यात्मकता और सादगी पर ज़ोर देता है। लूथरन चर्च डिजाइन में जोर भव्यता पर कम और इस बात पर अधिक होता है कि उपदेशक को सुना जा सके, और समुदाय ईश्वरीय वचन के आसपास एकजुट हो सके । जांबाहाल जैसे स्थानीय चर्चों में, यह वास्तुकला एक सरल, मजबूत सामुदायिक संरचना के रूप में अभिव्यक्त होती है, जो समुदाय की आवश्यकताओं के अनुरूप हो।
शताब्दी वर्ष का गौरव
जांबाहाल पल्ली के इतिहास की गहराई हाल ही में आयोजित एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम से प्रमाणित होती है। लगभग पाँच वर्ष पहले (2019 के आसपास), जांबाहाल पल्ली ने अपने 100 वर्ष के गौरवशाली इतिहास का शताब्दी समारोह (100 years jubilee) मनाया था ।
इस शताब्दी समारोह में निकाले गए भव्य जुलूस और आयोजित विशेष कार्यक्रम यह स्थापित करते हैं कि जांबाहाल पल्ली 20वीं सदी के शुरुआती वर्षों (संभवतः 1919 या 1920 के आसपास) से ही सक्रिय रहा है। इसका तात्पर्य यह है कि जांबाहाल पल्ली निर्मल मुंडा के ‘नो-रेंट’ आंदोलन (1938) की शुरुआत से बहुत पहले ही क्षेत्र में स्थापित हो चुका था। यह दीर्घकालिक स्थापना इसे सुंदरगढ़ क्षेत्र के सबसे पुराने लूथरन केंद्रों में से एक बनाती है, जिसने औपनिवेशिक काल से लेकर आधुनिक युग तक, कई सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों को देखा है।
पर्व और सामुदायिक एकता
सुंदरगढ़ जिला, अपनी बड़ी मसीही आबादी (18.39%) के कारण, पूरे उत्साह और “अपनी अनूठी विशेषता” के साथ क्रिसमस (Yuletide) मनाता है । जांबाहाल पल्ली का सामुदायिक जीवन इन पर्वों पर चरम पर होता है। कैरल गायकों का घर-घर जाकर गीत गाना (Carol Singing) जिले भर में उत्सव की भावना को बढ़ाता है , जो आस्था के सामूहिक और सार्वजनिक प्रदर्शन को दर्शाता है।
सुंदरगढ़ में क्रिसमस का यह ‘अद्वितीय’ उत्सव इस बात का प्रबल संकेत है कि मसीही विश्वास ने स्थानीय आदिवासी संस्कृति और परंपराओं के साथ सफलतापूर्वक तालमेल बिठा लिया है। लूथरन धर्मशास्त्र में उपासना में स्थानीय भाषा और समुदाय की सक्रिय भागीदारी पर बल दिया जाता है । जांबाहाल में, यह सिद्धांत आदिवासी नृत्य, संगीत और सामुदायिक परंपराओं के माध्यम से अभिव्यक्त होता है, जिससे मसीही त्यौहारों का स्वरूप स्थानीय हो जाता है।
इसके अलावा, जांबाहाल पल्ली जिस व्यापक GELC संरचना का हिस्सा है, वह महिला सशक्तिकरण के प्रति प्रगतिशील रही है। GELC ने हाल ही में महिलाओं को पादरी (Pastor) के रूप में समन्वय (Ordination) देने की 25वीं वर्षगांठ मनाई, जिसमें वर्तमान में 52 महिलाएं पादरी के रूप में सेवा दे रही हैं । यह प्रगतिशील सोच जांबाहाल जैसे स्थानीय पल्लियों में भी महिला और युवा भागीदारी को प्रोत्साहित करती है।
सशक्तिकरण और सामाजिक परिवर्तन: जी.ई.एल.सी. की ‘दीकोनिया’ (Diakonia)
जी.ई.एल. चर्च की पहचान केवल पूजा और पर्वों तक सीमित नहीं है; इसका मूल उद्देश्य ‘दीकोनिया’ या सामाजिक सेवा है। जांबाहाल पल्ली इस सिद्धांत को स्थानीय स्तर पर सक्रिय रूप से लागू करता है।
जीवनशैली और आधुनिक सोच पर प्रभाव
ईसाई धर्म और मिशनरी शिक्षा के प्रभाव ने सुंदरगढ़ के आदिवासी समुदायों की मानसिकता और जीवनशैली में गहरा परिवर्तन लाया है। धार्मिक प्रभाव ने आदिवासियों को ‘पारंपरिक सोच’ जैसे कि गाँव देवता, भूत-प्रेत का डर, जादू-टोना और अंधविश्वास पर विश्वास से हटकर ‘आधुनिक तर्कसंगत सोच’ (modern rational thinking) अपनाने के लिए प्रेरित किया है 18।
इस प्रेरणा से आदिवासी समुदायों में सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक और आर्थिक क्षेत्रों में विकासवादी दृष्टिकोण मजबूत हुआ है। शिक्षा के माध्यम से, आदिवासी युवा अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी रचनात्मकता और प्रयासों का प्रदर्शन कर रहे हैं । चर्च ने आदर्श जीवन जीने और प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाने पर बल दिया है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्तियों के आवास पैटर्न और जीवन शैली में सुधार हुआ है।
सामुदायिक प्रबंधन और कल्याण प्रणाली
जांबाहाल जैसे ईसाई समुदायों की एक अनूठी संगठनात्मक विशेषता उनका प्रभावी सामुदायिक प्रबंधन है। इन समुदायों में, आंतरिक संघर्षों को सुलझाने और सामुदायिक विकास के लिए ग्राम ‘पंच’ (Village Panch) का चुनाव किया जाता है, जो एक वार्ड सदस्य की तरह समुदाय के लोगों की देखभाल करते हैं 18। यह व्यवस्था न केवल अंतर-सामुदायिक विवादों को सुलझाती है, बल्कि चर्च के विकास या सामुदायिक कल्याण के लिए आवश्यक योगदान भी एकत्र करती है। यह संरचना एक प्रकार की धार्मिक अनौपचारिक देखभाल और कल्याण प्रणाली (religious informal care and welfare system) के रूप में कार्य करती है, जो आदिवासी स्व-शासन के पारंपरिक मूल्यों को आधुनिक संगठनात्मक ढांचे में एकीकृत करती है।
GELC का समग्र मिशन केवल जांबाहाल तक सीमित नहीं है। रांची मुख्यालय से प्रेरित होकर, GELC ने छोटानागपुर और असम क्षेत्र में वंचितों के सशक्तिकरण के लिए व्यापक कार्य किया है, जिसमें स्कूलों, अस्पतालों, नर्सिंग होम, अनाथालयों और स्वयं सहायता समूहों की स्थापना शामिल है । जांबाहाल पल्ली भी स्थानीय स्तर पर शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में इसी ‘दीकोनिया’ (सेवा कार्य) को आगे बढ़ाता है ।
न्याय और धार्मिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष
GELC की नींव में सामाजिक न्याय की मांग निहित है । यही कारण है कि सुंदरगढ़ का ईसाई समुदाय राजनीतिक और सामाजिक रूप से जागरूक और मुखर रहा है।
जांबाहाल क्षेत्र में लूथरन आस्था ने लोगों को संगठित विरोध की प्रेरणा दी है। 2025 में, सुंदरगढ़ जिले में 10,000 से अधिक मसीही समुदाय के लोगों ने धार्मिक स्वतंत्रता और उत्पीड़न को समाप्त करने की मांग करते हुए एक विशाल शांति रैली में भाग लिया था । इस दौरान उन्होंने जिला कलेक्टर को एक ज्ञापन सौंपा, जिसमें न्याय सुनिश्चित करने की मांग की गई ।
इस रैली में शामिल नेताओं ने इस बात पर जोर दिया कि ईसाई समुदाय पर होने वाले हमलों को अलग-थलग नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसे जातिवादी और सांप्रदायिक रणनीति के व्यापक हिस्से के रूप में पहचानना चाहिए। उन्होंने दलितों, आदिवासियों, ओबीसी और अन्य अल्पसंख्यकों के साथ एकता पर जोर दिया, जो प्रणालीगत भेदभाव का सामना करते हैं। समुदाय ने जागरूकता बढ़ाने, सामुदायिक संगठनों को सामाजिक न्याय और समानता के सिद्धांतों पर मजबूत करने और अन्य धार्मिक समूहों के साथ गठबंधन बनाने का संकल्प लिया ।
आधुनिक समय में यह सक्रिय सामाजिक न्याय आंदोलन, जो अधिकारों की रक्षा के लिए आयोजित किया जाता है, सीधे तौर पर गोस्नर के मूल सिद्धांत (‘गरीबों के अधिकारों के लिए लड़ना’) और 1930 के दशक के बहादुर भगत और निर्मल मुंडा के संघर्ष की निरंतरता को दर्शाता है। यह स्पष्ट करता है कि जांबाहाल क्षेत्र में लूथरन आस्था ने पीड़ितों को निष्क्रिय रूप से सहने के बजाय, संगठित होकर जागरूकता निर्माण (consciousness-building) और विरोध के माध्यम से बदलाव लाने की प्रेरणा दी है।
निष्कर्ष: जांबाहाल पल्ली की अनवरत विरासत
जी.ई.एल. चर्च जांबाहाल पल्ली, ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले में, गोस्नर इवेंजेलिकल लूथरन चर्च की 180 वर्ष पुरानी मिशनरी यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। यह पल्ली छोटानागपुर के आदिवासियों के इतिहास, उनके भूमि अधिकारों के लिए संघर्ष और उनके सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण की कहानी कहता है।
जांबाहाल पल्ली आज भी क्षेत्र में आस्था और समुदाय का एक मजबूत गढ़ बना हुआ है। यह लोगों को आध्यात्मिक मार्गदर्शन, समर्थन और अपनेपन की भावना प्रदान करता है, जिससे वे जीवन के संकटों के समय में सांत्वना प्राप्त करते हैं 3। प्रार्थना, आराधना सेवाओं और सामुदायिक आयोजनों का यह केंद्र निरंतर अपने समाज की भलाई के लिए प्रयासरत रहता है।
जांबाहाल की विरासत हमें यह सिखाती है कि सच्ची आस्था धार्मिक अनुष्ठानों से परे है; यह सामाजिक परिवर्तन, शिक्षा और न्याय के प्रति एक अटूट प्रतिबद्धता है। जांबाहाल पल्ली आज भी एक प्रकाश स्तंभ की तरह खड़ा है, जो समुदाय को अपने अधिकारों और स्वाभिमान के लिए खड़े होने की प्रेरणा देता है, और इस प्रकार छोटानागपुर के हृदय में एक अनवरत विरासत का निर्माण करता है। जो भी इस क्षेत्र के समृद्ध इतिहास और जीवंत आस्था को समझना चाहता है, उसके लिए जांबाहाल पल्ली की यात्रा अपरिहार्य है।
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